ट्रम्प टैरिफ: अमेरिका, रूस और चीन के साथ भारत का संतुलनकारी रवैया एक सोची-समझी रणनीति का संकेत है

पूर्व आईएएस अधिकारी वी एस पाण्डेय का मानना है कि ट्रम्प द्वारा भारत पर टैरिफ लगाए जाने से स्पष्ट हुआ कि अमेरिका की “अमेरिका फर्स्ट” नीति में भारत जैसे साझेदार देशों के हित गौण हो सकते हैं। इसके प्रत्युत्तर में भारत ने जो नीति अपनाई कि अमेरिका से संवाद बनाए रखते हुए चीन और रूस के साथ भी संबंध मजबूत करना—वह उसकी रणनीतिक स्वायत्तता का परिचायक है।

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सभी देशों की बराबरी और उनका सम्मान होने की बात सदैव की जाती है और संयुक्त राष्ट्र संघ का यही मूल सिद्धांत भी है , ऐसा कहा जा सकता है लेकिन वास्तविकता इसके एकदम विपरीत है , इसको कहने में कोई संकोच किसी को भी नहीं होना चाहिए । यह स्थिति सदैव से रही है और आज भी है और आगे भी रहे गी ऐसा कहा जा सकता है । अंग्रेजी में कहावत है कि “ माइट इस राइट “ यानी जिसकी लाठी उसकी भैस । जो मजबूत उसी की चलेगी और कमजोर के लिए कोई जगह अंतरराष्ट्रीय पटल पर नहीं है , यह वास्तविकता है । अमेरिका द्वारा एकतरफा ढंग से सारे विश्व की व्यापार व्यवस्था को टैरिफ लगा कर अस्त व्यस्त कर देना इसी वास्तविकता की परिणति है और इस तथ्य को अस्वीकार करना मूर्खता ही कहा जाएगा।अब भारत पर पचास प्रतिशत की टैरिफ लादने के लिए तर्क यह दिया जा रहा कि वह रूस से तेल ख़रीद रहा जिसके चलते यूक्रेन युद्ध समाप्त नहीं हो रहा और यह भी कहा जा रहा कि भारत अमेरिकी सामानों पर सबसे अधिक आयात शुल्क लेता है , आदि आदि । लेकिन सच्चाई तो यह है कि अमेरिका सबसे अमीर देश है और सबसे ताक़त वर भी इसलिए वह जो कहे तो उसे मानो । अगर अमरीकी राष्ट्रपति कहता है कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान का युद्ध रुकवाया और युद्ध विराम कराया तो कहिए कि जी सर , आप ही हैं वह जिसके कारण युद्ध रुका , सच्चाई चाहे कुछ भी हो । अगर वह कहें कि भारत और पाकिस्तान तो एक हज़ार साल से लड़ रहे तो कहिए – सही श्रीमान, चाहे सच यह हो कि पाकिस्तान शब्द भी नब्बे साल पहले नहीं था , युद्ध की तो बात ही छोड़िये ।
अब आइए आज के हालातों पर , तो यह समझना जरूरी है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की राजनीति केवल राजनयिक बयानों या औपचारिक बैठकों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि आर्थिक निर्णय, रणनीतिक समीकरण और भू-राजनीतिक गठजोड़ उसमें निर्णायक भूमिका निभाते हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा भारत पर टैरिफ लगाए जाने का मामला और उसके समानांतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा, जिसमें उन्होंने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन तथा अन्य नेताओं के साथ एकजुटता प्रदर्शित की, विश्व राजनीति में भारत की भूमिका और उसकी विदेश नीति की दिशा का एक संकेत मात्र कहा जा सकता है , इसके अलावा और कुछ भी नहीं । इन दोनों घटनाओं का भारत-अमेरिका संबंधों, भारत-चीन-रूस समीकरण और व्यापक वैश्विक शक्ति संतुलन पर क्या असर पड़े गा यह तो आने वाला समय ही बताएगा ।
यह स्पष्ट है कि डोनाल्ड ट्रम्प ने “अमेरिका फर्स्ट” नीति को प्राथमिकता देते हुए सभी देशों के साथ अमेरिका के व्यापारिक संबंधों को पुनर्निर्धारित किया है इसी सूची में भारत भी शामिल है । इसी संदर्भ में उन्होंने भारत पर कई वस्तुओं पर पचीस टैरिफ (आयात शुल्क) लगाया और भारत को जनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रेफरेंसेज (GSP) से बाहर करते हुए रूस से तेल आयात करने का बहाना लेकर पचीस प्रतिशत अतिरिक्त शुल्क भी थोप दिया । लेकिन रूस से सबसे ज़्यादा तेल आयात करने वाले देश चीन पर दंडात्मक शुल्क लगाने का साहस अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं दिखा सके , कारण साफ़ है कि चीन एक बहुत मज़बूत अर्थव्यवस्था बन चुका है और उसने बड़ी सामरिक शक्ति भी हासिल कर ली है । साफ़ है कि “समरथ को नहीं दोष गुसाईं “ कथन आज की सच्चाई है और उससे मुख मोड़ना अपने को धोखा देना मात्र है । जो भी आज कल के कथानक में कोई और मतलब ढूँड रहा हो तो इसके लिए क्या कहा जा सकता है । अगर हमारा देश अभी भी अस्सी करोड़ ग़रीब( सरकारी आंकड़ों के अनुसार इतने लोगों को पाँच किलो मुफ्त अनाज सरकार देती है ) लोगों की आबादी वाले देश के रूप में पहचाना जाता रहेगा तो उसके सामने आज जो हालात पैदा हो गए हैं , वैसी स्थितियों से आगे भी उसे सामना करना पड़े गा , इसमें कोई संदेह किसी को नहीं होना चाहिए ।
टैरिफ विवाद और अमेरिका के असहयोगी रुख के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के मतलब निकालने की कोशिशें की जा रही हैं । यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि यह यात्रा ऐसे समय हुई जब भारत-चीन संबंध डोकलाम जैसे सैन्य तनाव और सीमा विवादों के कारण संवेदनशील बने हुए थे। प्रधान मंत्री की चीन यात्रा के निहितार्थ निकालते समय यह तथ्य याद रखना निहायत जरूरी है कि चीन ने अंतरराष्ट्रीय मामलों में शायद ही कभी भारत का साथ दिया होगा जबकि उसने लगातार भारत के विरोध में ही अपना रूख रखा और आतंकवाद के मामले में वह सदैव पाकिस्तान के साथ मजबूती से खड़ा मिला । हाल में चार दिन की भारत पाकिस्तान के बीच पैदा हुई युद्ध ऐसी स्थिति के दौरान भी चीन पूरी तरह से पाकिस्तान की मदद में जुटा रहा । ऐसी स्थिति में चीन पर विश्वास करना एक पूर्णतः अतार्किक और अनुचित होगा ।
चीन भारत का पड़ोसी देश है और दोनों देशों की सीमाएं हज़ारों किलोमीटर लंबी है जहाँ शांति बनी रहे यह बहुत ज़रूरी है और इस सीमा तक चीन के साथ सौहार्द पूर्ण संबंध बना कर रखना होगा लेकिन इसके आगे दोस्ती का हाथ बढ़ाना कभी भी बुद्धिमत्ता नहीं होगी । चीन ने अपनी आर्थिक और सामरिक ताकत भारत की तुलना में इतनी ज़्यादा कर ली है कि भारत देश के पास तेज़ी से विकास करके अपने को भी जल्दी ही उतना ही मजबूत करना ही पड़ेगा , इसके अलावा अब कोई रास्ता नहीं बचा है । चीन के साथ व्यापारिक संबंधों रखने का कोई भी लाभ अभी तक तो नहीं दिखा और आगे भी ऐसा ही रहेगा यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है । इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि चीन पर निर्भरता को समाप्त करने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास किए जाएं और अगले चार पाँच साल में यह सुनिश्चित किया जाना कोई मुश्किल काम नहीं है ।
जहाँ तक रूस की बात है तो वह लंबे समय से भारत का रणनीतिक साझेदार रहा है। पुतिन के साथ भारत की एकजुटता ने यह संदेश दिया कि भारत केवल अमेरिका पर निर्भर नहीं है। यद्यपि अमेरिका की एकतरफा नीतियों के विपरीत भारत ने रूस और चीन के साथ मिलकर बहुध्रुवीय (multipolar) विश्व व्यवस्था की आवश्यकता का संकेत देने की कोशिश मात्र की है लेकिन इस मार्ग पर आगे चलने में अनेक बाधाएं हैं वह भी चीन को लेकर ।
यदि वस्तुनिष्ठ रूप से विश्लेषण करें तो भारत की वर्तमान नीति को सही कहा जा सकता है, क्योंकि भारत ने केवल अमेरिका या पश्चिम पर निर्भर न रहकर अपने विकल्प खुले रखे। रूस और चीन के साथ संवाद बनाए रखकर भारत ने यह दिखाया कि वह एशिया की शक्ति राजनीति में सार्थक भूमिका निभा सकता है और अमेरिका को भी यह संकेत मिला कि यदि वह भारत पर दबाव बनाएगा तो भारत अन्य विकल्पों कीओरजाएगा।इसी के साथ यह भी तय है कि अमेरिका -भारत संबंध रक्षा और तकनीकी क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण हैं, उन्हें कमजोर करना भारत के लिए नुकसानदेह होगा। वास्तविकता तो यह है कि चीन के साथ समीकरण संतुलित रखना कठिन है क्योंकि सीमाई तनाव हमेशा एक बड़ी बाधा रहेगा और रूस के साथ अत्यधिक निकटता भारत को पश्चिमी देशों की शंकाओं के घेरे में ला सकती है
ट्रम्प द्वारा भारत पर टैरिफ लगाए जाने से स्पष्ट हुआ कि अमेरिका की “अमेरिका फर्स्ट” नीति में भारत जैसे साझेदार देशों के हित गौण हो सकते हैं। इसके प्रत्युत्तर में भारत ने जो नीति अपनाई कि अमेरिका से संवाद बनाए रखते हुए चीन और रूस के साथ भी संबंध मजबूत करना—वह उसकी रणनीतिक स्वायत्तता का परिचायक है। प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा और पुतिन के साथ प्रदर्शित एकजुटता ने यह संकेत दिया कि भारत वैश्विक शक्ति संतुलन में केवल एक अनुयायी की भूमिका नहीं निभाएगा।भारत की नीति में कुछ जोखिम अवश्य हैं, परंतु वर्तमान अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में यही संतुलित दृष्टिकोण उसे अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने और वैश्विक मंच पर प्रभावी भूमिका निभाने में सक्षम बनाता है।
(विजय शंकर पांडे भारत सरकार के पूर्व सचिव हैं)

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