माफ़ी माँगने का रिवाज

आमजन से लेकर बुद्धिजीवियों तक,जनता द्वारा राजनैतिक दलों के दुष्कर्मों को नज़रअंदाज़ कर,क्षमा कर देने से दुष्टता का बीज अंकुरित होकर वृक्ष बन गया चुका है जिसकी छाया में राजनीति क्षेत्र स्वार्थ-क्षेत्र में परिवर्तित हो चुका है।इस भूमि पर निजी लाभ की फ़सलें लहलहा कर काटी जा सकती है पर जनहित की फ़सलों के बीज तक नष्ट हो जाते हैं ।इस परिस्थिति में भी देश की जनता राजनैतिक दलों के कुकृत्यों को माफ़ करती जा रही है,पर,क्या देश जनता को माफ़ करेगा?

प्रो. एच सी पांडे

पिछले कई सालों से राजनेताओं ने,हर तरह के दुष्कर्म,बदतमीजी और गाली-गलौज करने-कहने के बाद जनता को बेवक़ूफ़ बनाने का एक आसान तरीक़ा निकाला है।हर प्रकार की दुष्टता व अपराधिक कृत्य करो और फिर कहो हमें माफ़ कर दो।व्यक्ति विशेष द्वारा ऐसा किया जाना उनकी मूर्खता दर्शाता है परंतु राजनैतिक दलों द्वारा ऐसा किया जाना उनकी सोची-समझी रणनीति होती है।राजनैतिक दल,असभ्य व्यवहार से लेकर पाशविक कुकृत्य तक कुछ भी करने से नहीं हिचकते क्योंकि उन्हें विश्वास है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है तथा वह अल्प समय में सब कुछ भूल जाती है ।बस,घटना के पश्चात क्षमायाचना करना पर्याप्त है जनता के तत्कालिक क्रोध को शांत करने के लिये।
राजनैतिक संरक्षण पर प्रायोजित वीभस्त सिख विरोधी दंगे तथा तथा रामपुर तिराहा का शर्मनाक कांड दो ज्वलंत उदाहरण हैं,जिन पर राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने माफ़ी माँगी।किसी भी सभ्य समाज में ऐसे कृत्य असहनीय तथा अक्षम्य होते हैं परंतु भारत में राजनैतिक दल सार्वजनिक रूप से माफ़ी माँगने का अभिनय कर के जनता से क्षमा प्राप्त करने में सफल रहते हैं।देश की जनता का यह आचरण उसकी सरलता अथवा मूर्खता अथवा लापरवाही परिलिक्षित करता है।संभवत: तीनों का मिश्रण ।
यह समझना ज़रूरी है कि जनता की ऐसी सहिष्णुता किसी भी जनतंत्र के लिये घातक है।सैकड़ों वर्ष की दासता से मुक्त होकर सामाजिक तथा आर्थिक विकास की ओर बढ़ते हुवे देश के लिये राजनैतिक असत्य कथन,दुष्प्रचार और दुष्टता को सहना,या,नज़रअंदाज़ करना, भयंकर भूल है।झूठ तथा दुर्जनता की खाद में राजनैतिक स्वार्थ- वृक्ष ही उगता है और कालांतर वट वृक्ष की तरह अपनी शाखाओं से नित्य नई जड़ें उत्पन्न कर के सारे राजनैतिक क्षेत्र को स्वार्थ- वृक्षों से आच्छादित कर देता है ।स्वार्थ वृक्ष की घनी छाया में न तो प्रगति के पौधे उठ पाते हैं और न विकास के पुष्प पल्लवित हो सकते हैं।स्वतंत्रता,समानता तथा समरसता की बेल के पनपने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
भारत का संविधान विश्व में उत्कृष्ट आदर्श के रूप में जाना जाता है।सच में,जब संविधान पुस्तिका का अध्ययन किया जाता है तो इस मान्यता की पुष्टि होती है ।एक और महत्वपूर्ण सत्य है,और ,वह यह कि आदर्श संविधान तभी अर्थपूर्ण है जब राजनेता भी सत्यनिष्ठ हों ,कुछ नहीं तो कम से कम,दुष्ट न हों।याद रहे कि दुष्टता का बीज सर्वत्र अदृश्य रहता है, और पोषित करने पर ही विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है।संविधान केवल शपथ लेने के लिए नहीं वरन अनुपालन के लिये है।केवल संविधान पुस्तिका लहराना संविधान का पालन नहीं है।
स्थापित संसदीय कार्यप्रणाली के नियमों का उल्लंघन करना,सर्वसम्मति से अनुमोदित कार्यक्रम में जब चाहे विघ्न डालना,तर्कसंगत बहस न होने देना,शोर-शराबा,नारेबाज़ी,सदन से बहिर्गमन, यह सब संविधान का घोर उल्लंघन ही नहीं अपमान भी है।
संविधान में वर्णित अभिव्यक्ति की आज़ादी का यह अर्थ नहीं कि सरासर झूठ बोलने,अपमानजनक,अश्लील व घृणित शब्दों की बौछार करने की अनुमति है।संसदीय कार्यप्रणाली का अर्थ यह नहीं कि संसद में विपक्ष में होने पर,बिना उचित-अनुचित का विचार किये हुए,सत्तापक्ष की हर योजना,हर प्रस्ताव का विरोध किया जाय।सत्तापक्ष के विधि सम्मत व तर्क सम्मत प्रस्ताव पर सकारात्मक बहस न करने की स्थिति में संसद में विपक्ष द्वारा हंगामा करना और मनमर्ज़ी बहिर्गमन करना अनुचित होने के साथ-साथ संसदीय प्रणाली को निरर्थक सिद्ध करता प्रतीत होता है।यदि तर्कसंगत बहस नहीं करनी है तथा बहिर्गमन ही करना है तो संसद भवन की क्या आवश्यकता है ।गाली-गलौज तो किसी भी गली-कूचे में की जा सकती है,और अपशब्दों की वर्षा करने के लिये किसी भी संविधान ज़रूरत नहीं होती ।
आमजन से लेकर बुद्धिजीवियों तक,जनता द्वारा राजनैतिक दलों के दुष्कर्मों को नज़रअंदाज़ कर,क्षमा कर देने से दुष्टता का बीज अंकुरित होकर वृक्ष बन गया चुका है जिसकी छाया में राजनीति क्षेत्र स्वार्थ-क्षेत्र में परिवर्तित हो चुका है।इस भूमि पर निजी लाभ की फ़सलें लहलहा कर काटी जा सकती है पर जनहित की फ़सलों के बीज तक नष्ट हो जाते हैं ।इस परिस्थिति में भी देश की जनता राजनैतिक दलों के कुकृत्यों को माफ़ करती जा रही है,पर,क्या देश जनता को माफ़ करेगा?

(प्रो. एच सी पांडे, मानद कुलपति, बिट्स, मेसरा हैं)

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